महाराणा प्रताप सिंह – यूँ तो संपूर्ण भारतवर्ष की धरती योद्धाओं से भरी हुई है, लेकिन हिंदुस्थान के सम्मान की लाज रखने वाले शूरवीर महाराणा प्रताप की कोई तुलना नहीं की जा सकती। राणा का नाम सुनते ही मुग़लों के पैरों से जमीन खिसक जाती थी। 

महाराणा प्रताप सिंह सिसौदिया (राजपूत)

महाराणा प्रताप उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित राजस्थान राज्य के एक बेहद प्रसिद्ध राजपूत सम्राट और योद्धा थे। मेवाड़ की धरा पर उनका शासन खूब फला फूला। महाराणा प्रताप को महान राजपूत योद्धाओं में से एक थे। राणा ने तुर्की मुगल शासक अकबर के ख़िलाफ़ अपना संपूर्ण जीवन अपनी प्रजा और क्षेत्र की रक्षा में गुजार दिया। 

अन्य पड़ोसी राजपूत शासकों के विपरीत, महाराणा प्रताप ने कईयों दफा शक्तिशाली मुगलों शासकों को मौत के घाट उतार दिया। महाराणा प्रताप ने कभी भी अपने स्वाभिमान से समझोता नहीं किया और अपनी अंतिम सांस तक साहसपूर्वक लड़ते रहे। 

राजपूत वीरता, परिश्रम और वीरता का प्रतीक है। सम्राट महाराणा प्रताप इकलौते राजपूत योद्धा थे जिन्होंने मुगल सम्राट अकबर की ताकत का मुकाबला करने के लिए कभी हार नहीं मानी। उनके साहस, बलिदान और प्रखर स्वतंत्र भावना के लिए, उन्हें राजस्थान के साथ साथ संपूर्ण विश्व में एक नायक के रूप में सम्मानित किया जाता है।

महाराणा प्रताप का सम्पूर्ण परिचय – 

महाराणा प्रताप का जन्म वन छिड़वा नामक स्थान पर हुआ था। वे वैष्णव धर्म के अनुयायी थे और उन्होंने अपने जीवन में धर्म के लिए कई लड़ाईयां लड़ीं।

महाराणा प्रताप सिंह - मेवाड़

पूर्वज – महाराणा उदयसिंह द्वितीय

राजधानी – गोगुन्दा, चावंड

राजवंश – मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत

राज तिलक – 28 फरवरी, 1572; गोगुन्दा

जन्म स्थान – कुम्भलगढ़ किला, राजस्थान

उत्तराधिकारी – महाराणा अमर सिंह

मृत्यु तिथि – 19 जनवरी 1597

मृत्यु स्थान – चावंड, राजस्थान

मां – महारानी जयवंता बाई

साम्राज्य – मेवाड़

जीवनसाथी – अजबदे ​​पंवार; फूल कंवर राठौड़ व अन्य

सगे-संबंधी – महाराणा सांगा (दादा), महारानी कर्णावती (दादी), मीराबाई (चाची), शक्ति सिंह (भाई), जगमाल (भाई)

बच्चे – महाराणा अमर सिंह

पिता – महाराणा उदयसिंह द्वितीय

जन्म की तारीख – 9 मई, 1540

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महाराणा प्रताप का बचपन – 

महाराणा प्रताप सिंह, राजस्थान के मेवाड़ में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा उदय सिंह के तीसरे बेटे थे। राणा का जन्म 9 मई, 1540 को कुंभलगढ़ में हुआ ।

Maharana प्रताप सिंह का बचपन उनके परिवार के लिए बहुत ही कठिन था। उनके पिता राजा उदय सिंह की संपत्ति पर कई आंधी-तूफान आए थे, जिससे उन्हें बड़ी हानि हुई थी। उदय सिंह को अपनी ज़मीनों के बचाव के लिए इधर से उधर घुमाना पड़ता था और समय-समय पर उनकी ग़ुस्सा राणा प्रताप पर भी निकलती थी। इस वजह से राणा प्रताप सिंह को बचपन से ही संघर्ष के जीवन का सामना करना पड़ा।

महा राणा प्रताप सिंह का बालपन बड़ी कठिनाइयों का सामना करते हुए गुजरा । उनके पिता के आदेशों के बावजूद, प्रताप सिंह ने अपनी स्वतंत्र चेतना का पालन करते हुए अपनी खुद की उपलब्धियों के लिए भरसक प्रयास किए। वे एक बहुत ही उज्ज्वल मानव थे जो न केवल राजा उदय सिंह के अधीन रहने के लिए तैयार थे, बल्कि उन्होंने मुग़लों की अधीनता का भी पुरजोर खंडन किया। 

प्रताप सिंह का बचपन उनके परिवार में भी बहुत ही विशिष्ट रहा । वे अपने बचपन में अपने परिवार के तमाम सदस्यों के साथ रहते थे, जिनमें उनकी माता जयंती देवी , बड़े भाई शक्ति सिंह और छोटे भाई अर्य सिंह भी थे। इनके अलावा, उनके परिवार में बहुत से सेवक और सेविकाये भी भी जो उनकी सेवा करने के लिए तत्पर रहती थे ।

वीर सम्राट महाराणा प्रताप सिंह ने अपने बचपन में राजपूताना की रीति-रिवाजों और धर्म के बारे में काफी कुछ सीखा। उनके घर में धर्म और क्षत्रियों की दायित्वों के बारे में बहुत सी बातें सुनाई जाती थीं। उनके परिवार में धर्म के बहुत से त्योहार मनाए जाते थे जिनमें होली, दिवाली, जन्माष्टमी और नवरात्रि शामिल थे।

प्रताप सिंह के बचपन के दौरान, उन्हें शिक्षा की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि उन्हें जो ज्ञान चाहिए था वह उन्हें उनके परिवार के अनुभवों से मिलता था। 

उनके बचपन के दौरान, उन्हें शिक्षा की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि उन्हें जो ज्ञान चाहिए था वह उन्हें उनके परिवार के अनुभवों से मिलता था। उनके बचपन के दौरान उन्हें शस्त्र-शिक्षा, घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और बाणबाज़ी जैसी क्षेत्रों में भी ट्रेनिंग दी जाती थी। इसके अलावा, वे बचपन से ही गांव में बहुत से नदी-तटों और जंगलों में घूमते रहते थे, जिससे उन्हें जंगल के जीव-जंतुओं और प्रकृति के साथ अच्छी तरह से वाकिफ होने का मौका मिलता था।

महाराणा प्रताप का शासन –

महा राणा प्रताप का शासन - मेवाड़

जब प्रताप के पिता द्वारा महाराणा प्रताप सिंह को सिंहासन पर बैठाया जा रहा था , तो उनके भाई जगमाल सिंह, को बुरा लग गया। जग माल सिंह अपने पिता द्वारा क्राउन प्रिंस के रूप में नामित किए जा चुके थे। जब जग माल सिंह ने बदला लिया और मुगल सेना में शामिल हो गए। मुग़ल बादशाह अकबर ने उनकी सहायता के लिए उन्हें जहाजपुर शहर से पुरस्कृत किया।

जब राजपूतों ने चित्तौड़ छोड़ा, तो मुगलों ने इस पूरे क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया था, लेकिन मेवाड़ के राज्य पर कब्जा करने के उनके हर प्रयास असफल रहे। अकबर द्वारा भेजे गए कई दूतों ने गठबंधन बनाने के लिए प्रताप के साथ बातचीत करने की कोशिश की, लेकिन राणा के सौर्य के आगे कोई उपाय ठिक नहीं पाया। 

1573 में जब अकबर ने छह राजनयिक दूतों को राणा को मनाने के लिए भेजा लेकिन महाराणा प्रताप द्वारा ठुकरा दिए गए थे। इन मिशनों में से अंतिम का नेतृत्व अकबर के बहनोई राजा मान सिंह ने किया था। जब अकबर किसी भी तरह से राणा को मनाने में असफल रहा तो अकबर ने अपनी शक्तिशाली मुगल सेना का सहारा लिया, इसके बाबजूद भी वह महाराणा प्रताप को कभी नहीं हरा पाया। 

महाराणा प्रताप का निजी जीवन कैसा था?

महाराणा प्रताप का जीवन

महाराणा प्रताप सिंह, 16वीं सदी के भारतीय इतिहास के सबसे महान वीर योद्धाओं में से एक थे। प्रताप जन्म से ही अपने धर्म, भूमि और स्वाभिमान के लिए युद्ध लड़ते रहे ।

महाराणा प्रताप का जीवन बहुत ही उतावला था। वह अपने पिता महाराणा उदय सिंह और दादा महाराणा सांगा के जैसे महान योद्धा बनने के लिए प्रेरित थे। बचपन से ही युद्ध कला में निपुण और शास्त्र और शस्त्र विद्याओं में पारंगत थे। उन्होंने अपने महान पूर्वजो में संसार के सबसे बड़े योद्धाओं को देखा जिन्होंने आक्रमणकारी मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।

प्रताप सिंह ने भी अपने पूर्वजों की तरह ही राजस्थान के लिए जीवनभर संघर्ष करते रहे और तमाम लड़ाई लड़ी। प्रताप सिंह ने मुगल सम्राट अकबर के खिलाफ खड़े होकर विजय पाने के लिए कई युद्ध लड़े। 1576 ई. में हुआ हालदीघाटी का युद्ध महाराणा प्रताप के लिए एक विशेष युद्ध था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने अपने सबसे अच्छे योद्धों के साथ खुद लड़ाई लड़ी और मुगल सेना को बुरी तरह पराजित किया। 

महाराणा प्रताप के जीवन में संघर्ष  –

महाराणा प्रताप का जन्म

हल्दी घाटी के युद्ध में मुगलों की सेना अधिक संख्या में थी। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना हार गई, लेकिन राणा ने स्वतंत्र राज्य के लिए लड़ने के लिए सतत प्रयास को जारी रखा ।

महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में बहुत से दुख भी झेले। प्रताप की राजधानी चितौड़गढ़ जब मुगलों के हाथों में आयी तो राणा ने अपनी राजधानी को छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा। उनकी अर्धांगिनी राणी फुलवती  और बेटे कुँवर वीरविजय सिंह उसके साथ ही थे। राणा का सम्पूर्ण जीवन प्रेरणा और संघर्षों से भरा हुआ है। उन्होंने कईयों कठिनाइयों को सहते हुए भी लंबे संघर्षों के बाद अपने राज्य को फिर से प्राप्त किया था।

महाराणा प्रताप के निजी जीवन में उनकी वीरता, धैर्य, स्वाभिमान, और अद्भुत जीवन शैली भी शामिल थी। वह राजा के रूप में अपनी प्रजा के लिए एक आदर्श थे और उनका जीवन संघर्ष, समर्पण और संकल्प से भरा था।

मेवाड़ की परंपरा – 

वीर शिरोमणी क्षत्रिय सम्राट महाराणा प्रताप सिंह को  ‘भारत का सबसे पहला स्वतंत्रता सेनानी’  भी माना जाता है। राणा ने अकबर के नेतृत्व वाली विशाल मुगल सेना के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया था। महाराणा प्रताप संघर्षशील जीवन और उपलब्धियों पर कई टेलीविजन शो, वेब सीरीज और फ़िल्में बनाई जा चुकी हैं।

समूचा राजस्थान महाराणा प्रताप को समर्पित एक ऐतिहासिक स्थल है। खासकर मेवाड़ और उदयपुर में महाराणा प्रताप के जीवन और शौर्य को समर्पित कई स्मारक मिल जायेगे। 

  • मोती मगरी
  • पर्ल हिल

उदयपुर के शीर्ष पर्यटन स्थलों में से एक जो महाराणा प्रताप सिंह को समर्पित किए गए  है। इन जगहों को महाराणा भगवत सिंह मेवाड़ द्वारा बनवाया गया था। इसी जगह महाराणा प्रताप की एक विशाल प्रतिमा है जिसमें राणा अपने घोड़े ‘चेतक’ की सवारी करने वाले वीर योद्धा की आदमकद कांस्य प्रतिमा को प्रदर्शित करता है।

महाराणा का पुनरुत्थान

उदयपुर (Maharana Pratap ki rajdhani)

उस समय अकबर पंजाब में मिर्जा हकीम के द्वारा हो रहे आक्रमण तथा बिहार और बंगाल में में हो रहे विद्रोहों के मद्देनजर, मुगल बादशाह अकबर ने इन समस्याओं से निपटने के लिए अपना ध्यान हटा लिया ।

मिले हुए सबूतों के आधार पर अकबर द्वारा एक पत्र में लिखा “मैं मेवाड़ पर मुगल दबाव को कम करने में परिणत हुआ” । महाराणा ने 1582 में देवर स्थित एक बड़ी मुगल पोस्ट पर हमला किया और कब्जा कर लिया। 1585 में अकबर लाहौर चला गया और अगले बारह वर्षों तक उत्तर-पश्चिम की स्थिति पर नज़र रखने के लिए वही रुका रहा। 

इस अवधि के दौरान मेवाड़ में कोई मुगल अभियान नहीं भेजा गया था। प्रताप ने इस स्थिति का भरपूर लाभ उठाया और गोगुन्दा, कुम्भलगढ़ और उदयपुर सहित पश्चिमी मेवाड़ पर फिर से अपना अधिकार कर लिया। राणा ने डूंगरपुर के पास चावंड में एक नई राजधानी का निर्माण कराया ।

महाराणा प्रताप के युद्ध – 

महाराणा प्रताप भारत के मुगलकालीन समय में एक महानायक थे। वे मेवाड़ के राजा थे और अपनी प्रजा की रक्षा के लिए अपने रक्त की एक एक बूँद लुटाने को तैयार थे। 

देवर का पहला युद्ध 1576 ईस्वी (महाराणा विरुद्ध बहलोल खान) –

महाराणा और बहलोल खान का युद्ध

रणभूमि में जिस पठान का भी पड़ा राणा के साथ पाला..

राणा की तलवार ने उसे घोड़े समेत फाड़ डाला “

– देश भक्त

राणा अपने राजपूती अंदाज में दुश्मनों को धूल चटाने में कभी पीछे नहीं हटे। 1576 ईस्वी में, मुगल बादशाह अकबर का सबसे काबिल गुलाम बहलोल खान को एक बड़ी मुगल सेना के साथ राणा को मारने के लिए भेजा। खान ने अकबर आदेशों के अनुसार मेवाड़ पर आक्रमण किया था। मुग़लों द्वारा अब चितोड़गढ़ के बाद मावड़ी के शहर देवर पर भी हमला कर दिया था । महाराणा प्रताप उस समय देवली में ही उपस्थित थे, लेकिन उन्होंने अपनी सूझ बुझ से तत्कालीन राजा बाहादुरशाह के साथ मिलकर मुगल सेना से युद्ध करने का फैसला किया।

दोनों सेनाओं के बीच देवर के पास भीषण युद्ध हुआ, जो कि बेहद उत्साहजनक था। बहलोल खान की मुगल सेना मेवाड़ की आधिकारिक सेना से कई गुना अधिक संख्या में थी, लेकिन महाराणा प्रताप की सेना में अपने गौरव और शान के लिए लड़ने वाले खानदानी राजपूत सामंतों की बहादुर सेना थी। राणा की सेना संख्या में भले ही कम थी लेकिन एक एक राजपूत सैनिक 60 से 70 सैनिकों पर भारी था। 

युद्ध के दौरान, महाराणा प्रताप अपने प्रिय घोड़े चेतक की मदद से बहुत साहस और धैर्य से लड़ते रहे। बहलोल खान और उसकी सेना भी शुरुआत में उत्साह से लड़ रही थी। युद्ध के दौरान दोनों ही सेनाओं के बहुत से लोग घायल हो गए और अंततः महाराणा प्रताप की सेना ने युद्ध जीत कर भगवा परचम लहरा लिया।

महाराणा प्रताप और अकबर के युद्ध

देवर का युद्ध महाराणा प्रताप के लिए बेहद महत्वपूर्ण था, क्योंकि उन्होंने मुगल साम्राज्य की बहुत बड़ी सेना के साथ साथ अकबर के सबसे काबिल गुलाम को बेरहमी से मार गिराया था। अपनी और अपनी जन्मभूमि की रक्षा में हुआ यह युद्ध अन्य राजपूती राजाओं के लिए एक मिशाल बन गया था। इस युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की राजधानी उदयपुर से छोड़कर दूसरे स्थानों में आश्रय लिया, जहां उन्हें अपनी सेना को पुनर्गठित करने का अवसर मिला।

राणा और जली बाई का युद्ध – 1558 ईस्वी (ग्वालियर)

महाराणा प्रताप के पराक्रम का एक और महत्वपूर्ण उदाहरण 1558  ईस्वी में हुआ जली बाई के साथ हुआ ग्वालियर का युद्ध  है। इस युद्ध का मुख्य कारण था कि महाराणा प्रताप और जली बाई के बीच संबंध ख़राब हो गए थे। दरअसल जली बाई ने राणा के साथ गद्दारी करने के विफल प्रयास किए। 

जली बाई ने ग्वालियर शासक रामशाह के साथ मिलकर महाराणा प्रताप को विदेशी शासन से सहमति के लिए बाध्य करने की कोशिश की थी, किंतु महाराणा ने इसका जबाब जली बाई को मौत के घाट उतार कर दिया। 

इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने अपनी बहादुर राजपूती सेना के साथ जली बाई और ग्वालियर के ताकतवर सेनापति मानसिंह तोमर के बीच लड़ाई की थी । महाराणा प्रताप की सेना जली बाई और मानसिंह की सेना के बीच उत्तरी ग्वालियर के समीप लड़ी थी। 

युद्ध के दौरान, जली बाई ने अपनी सेना को आगे बढ़ाकर महाराणा प्रताप की सेना के खिलाफ सीधा आक्रमण किया, लेकिन महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को चुस्त रखकर जली बाई की सेना को बुरी तरह पराजित किया और उसे हरा दिया।

जली बाई के बाद युद्ध में मानसिंह भी महाराणा प्रताप के बलिदानी सैनिकों के हाथों मारा गया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने अपनी साहसिकता और धैर्य का अनोखा परिचय दिया था। यह लड़ाई राणा के जीवन में उनकी वीरता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण माना जा सकता है। 

इस युद्ध से पहले भी महाराणा प्रताप की कई शौर्यगाथाओं थी । इस युद्ध के बाद भी उन्होंने आक्रमणकारियों के खिलाफ जंग जारी रखी और उन्होंने मुगल सम्राट अकबर से तीन बार युद्ध किया।

हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप का पराक्रम –

हल्दी घाटी युद्ध में महाराणा प्रताप

हल्दीघाटी के युद्ध को ही राणा का तीसरा बड़ा युद्ध माना जाता है। यह युद्ध महाराणा प्रताप के शौर्य का सबसे सटीक और उज्जवल उदाहरण है। उस वक्त मुगल सेना के सामने राजपूतों की सेना बहुत ही कमजोर स्थिति में थी। परंतु महाराणा प्रताप के पराक्रम और शौर्य के आगे सब फीका था। राणा ने अपनी सेना को संगठित करके मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

महाराणा प्रताप ने इस युद्ध में एक अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया। उस समय के प्रमुख कवियों की कविताओ में राणा के शौर्य और पराक्रम की वसिष्ठ छवि दिखती है। जिसने भी राणा को उस युद्ध में देखा सभी उनकी वीरता और अखंडता के मुरीद हो गए। राणा के व्यक्तित्व ने लोगों के दिलों में उनकी वीरता को सबूत दिया। वह अपने घोड़े पर एक कमान लेकर सीधे मुगलों की ओर दौड़ पड़े और अपनी सेना की हौसला अफजाई करते हुए सेना के साथ लड़ाई में भाग लिया। 

ना सिर्फ प्रताप की बल्कि उनके मशहूर घोड़े ‘चेतक’ की कई वीर गाथा आज भी प्रचलित है। मुगल सेना के सामने महाराणा प्रताप ने एक महान युद्ध लड़ा और अकबर के सेनापति मान सिंह को मार गिराया। 

दरअसल, हल्दीघाटी का युद्ध मुगल साम्राज्य के एक प्रमुख अधिकारी मान सिंह के नेतृत्व में हुआ था जिसे महाराणा प्रताप ने बेहद बड़ी लड़ाई दी थी। मुगल सेना के सामने राजपूतों की सेना कमजोर थी लेकिन महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को संगठित करके मुगलों के खिलाफ भयंकर लड़ाई लड़ी। प्रताप अपने स्वाभिमान और वीरता के लिए इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में अमर हो गए। राणा की तलवार ने हल्दीघाटी के युद्ध को स्वाभिमान की रक्षा का उज्जवल उदाहरण बना दिया।

भगोर का घाटी का युद्ध –  1584 ईस्वी 

राणा की अगली पीढ़ी द्वारा लड़ा गया चौथा युद्ध भगोंर घाटी युद्ध के नाम से जाना जाता है। यह युद्ध 1584 में हुआ था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप के बेटे अमर सिंह ने मुगल सेना के साथ कड़ा संघर्ष किया था। युद्ध के दौरान राणा अमर सिंह जी ने अपने राजपूती सैनिकों के साथ मिलकर मुग़लों की सेना को बुरी तरह पराजित किया। 

इस युद्ध में अमर सिंह की बहादुरी से मुगल सेना को बड़ी हानि पहुंचाई गई थी। इसके बाद, मुगल सेना ने फिर से मारवाड़ के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया था। महाराणा प्रताप की अगली पीढ़ी ने भी मुगल सेना के खिलाफ लड़ाई जारी रखी और उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए मुगल सल्तनत के खिलाफ लड़ाई हमेशा जारी रखी।

महाराणा प्रताप की मृत्यु  – 

महान योद्धा 29 जनवरी, 1597 को 56 वर्ष की आयु में, मुगल साम्राज्य के खिलाफ अपने निरंतर संघर्ष के दौरान लगी चोटों के परिणामस्वरूप स्वर्गीय निवास के लिए रवाना हुए। उनके सबसे बड़े पुत्र, अमर सिंह I ने उन्हें मेवाड़ के सिंहासन पर बैठाया।

और उनकी मृत्यु में उनके भक्तों को महान दुख हुआ था। महाराणा प्रताप की मृत्यु से पहले उन्होंने जीवन में कई अहम संघर्ष जीते हैं।

महाराणा प्रताप की मृत्यु 29 जनवरी, 1597 को उड़ैपुर में हुई थी। लगभग 15 दिनों तक बहादुर महाराणा जी अपनी मौत से लड़ते रहे थे। हालांकि उनको दुख को यह नहीं था कि वे देश की समृद्धि एवं स्वतंत्रता को खो देंगे।

महाराणा प्रताप एक ऐसा महान नायक था जो अपने जीवन भर असंख्य संघर्ष जीते थे। उन्होंने अपने प्राणों की कड़वाहट के साथ अपने देश की स्वतंत्रता की रक्षा की। उनका नाम आज भी भारतीय इतिहास के सबसे महान नायकों में से एक है।

महाराणा प्रताप की मृत्यु की खबर सुनकर अकबर की प्रक्रिया – 

उस समय जब राणा ने अंतिम सांसे ली, तो अकबर के एक कवि ने अकबर की प्रक्रिया को कविता के माध्यम से बताया – 

“अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी

गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी

नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली

न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली

गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी

निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी” 

अर्थार्त – 

हे राणा तुम तुम्हारे मृत्यु की खबर सुनकर सम्राट के आँखों से आंसू आ गए। तुमने कभी भी अपने घोड़े पर मुग़लों के दाग नहीं लगने दिए, तुमने हमेशा अपने स्वाभिमान को ऊँचा रखा। हालांकि तुमने अपना राज्य छोड़ दिया लेकिन फ़िर भी तुमने हमेशा राजा ही रहे। तुम्हारी रानियों का मान बना रहा उन्हें कभी नवरोजों में नहीं जाना पड़ा।

हे राणा तुम कभी किसी के गुलाम नहीं बने बल्कि तुम्हारे रौब के सामने सबको झुकना पड़ा। इसीलिए में ये खुद कहता हूँ कि राणा सब कुछ जीत गया और बादशाह हार गया। 

अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना पूरा जीवन का बलिदान कर देने वाले ऐसे वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और उनके स्वामिभक्त अश्व चेतक को शत-शत कोटि-कोटि प्रणाम।

महाराणा प्रताप की कितनी पत्नियां और बेटे थे? –  

राणा ने अपने जीवन में कई विवाह किए जी इनमें से अधिकतर विवाह उन्होंने विपरित परिस्थितियों के दौरान करे। राजनैतिक सा संधि को ध्यान में रखते हुए राणा को करीब 11 विवाह करने पड़े। 

प्रताप की कुल ग्यारह पत्नियाँ, पाँच बेटियाँ और सत्रह बेटे थे। उनकी पत्नियों के नाम अजबदे ​​पंवार, रानी लखाबाई, रानी चंपाबाई झाटी, रानी शाहमतीबाई हाड़ा, रानी रत्नावतीबाई परमार, रानी सोलनखिनीपुर बाई, रानी अमरबाई राठौर, रानी फूल बाई राठौर, रानी आलमदेबाई चौहान, रानी जसोबाई चौहान और रानी खिचर आशाबाई हैं।

क्या महाराणा प्रताप ने सच में घास की रोटियां खाई थी? 

मुग़लों से हो रहे संघर्ष के दौरान राणा को अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए कड़ी परीक्षा देनी पड़ी। इस संघर्ष के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब राणा को अपने परिवार के साथ जंगल में भील जनजाति के साथ आसरा लेना पड़ा। महाराणा प्रताप और उनके परिवार को लंबे समय तक जंगल में रहना पड़ा और इस दौरान वे घास की बनी रोटियों पर जीवित रहे। 

एक दिन एक जंगली बिल्ली ने महाराणा की पुत्री के हाथ से घास की रोटी छीन ली, तब उन्होंने अकबर के सामने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया। अपने पूरे संघर्ष को बताते हुए राणा ने उस समय के प्रसिद्ध कवि पृथ्वीराज को पत्र लिखा। 

पृथ्वीराज स्वयं एक राजपूत योद्धा और महान कवि थे। उन्होंने राणा को पत्र का जबाब दिया और उनका हौसला बढ़ाया। पृथ्वीराज ने महाराणा को वापस इस तरह से लिखा जिससे प्रताप को अकबर का सामना करने के लिए आत्मविश्वास और शक्ति मिली।

महाराणा प्रताप और महिलाओं की गरिमा – 

वह महिलाओं की गरिमा को बनाए रखने के लिए जाने जाते थे। एक अवसर पर, जब राणा के पुत्र अमर सिंह ने एक मुगल अधिकारी को बंधक बना कर लाए तो उसके शिविर कई महिलाये मिली जिन्हें अमर सिंह इनाम के रूप में साथ लाए थे। लेकिन महाराणा प्रताप ने इस कृत्य को झिड़क दिया और महिलाओं को वापस शिविर में ले जाने का आदेश दिया। 

ऐसा कहा जाता है कि समय के उस दौर में अब्दुर रहीम खान-ए-खाना उसी समय प्रताप पर जोरदार हमला करने की तैयारी कर रहे थे , लेकिन जब उसने राणा की दरियादिली को समझा और इस घटना के बारे में सुना तो उसने तुरंत ही राणा के खिलाफ चल रहीं अपनी सारी योजनाएं बंद कर दी और अपनी सेना वापस ले ली।

महाराणा प्रताप और भामा शाह 

महाराणा प्रताप और उनकी राजपूती सेना मुगलों के साथ वर्षो से लगातार युद्ध में थे जिससे बड़ा वित्तीय संकट पैदा हो गया। इसी दौरान एक समय ऐसा आया जब राणा के पास अपनी सेना का समर्थन करने के लिए पैसे नहीं बचे थे। 

उसी समय भामा शाह जो राणा के आधिकारिक मंत्री थे। भामा शाह ने मंत्री होने के नाते महाराणा प्रताप को आर्थिक रूप से सहायता प्रदान की, इसी आर्थिक सहायता के बलबूते पर राणा ने अगले बारह वर्षों तक अपनी सेना का समर्थन और भरण पोषण करने में सक्षम थे।

महाराणा प्रताप के बारे में रोचक तथ्य – 

  • राणा के सीने के कवच का वजन 72 किलो और उनके भाले का वजन 81 किलो था।
  • महाराणा प्रताप सात फीट पांच इंच लंबे और वजन 110 किलो था।
  • महाराणा प्रताप की ढाल, भाला, दो तलवारें और कवच का कुल वजन लगभग 208 किलो था।
  • चेतक के अलावा एक और जानवर था जो महाराणा को बहुत प्रिय था – रामप्रसाद नाम का एक हाथी। हल्दीघाटी के युद्ध के दौरान रामप्रसाद ने कई घोड़ों, हाथियों और सैनिकों को मार डाला और घायल कर दिया। कहा जाता है कि राजा मानसिंह ने रामप्रसाद को पकड़ने के लिए सात हाथियों को तैनात किया था।
  • महाराणा प्रताप छापामार युद्ध रणनीति का उपयोग करने में बहुत कुशल थे।
  • राणा के पास चेतक नाम का एक बहुत ही वफादार घोड़ा था, जो महाराणा का पसंदीदा भी था। हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप को बचाने के प्रयास में चेतक अमर हो गया।
  • आदिवासियों द्वारा प्रताप को कीका कहा जाता था; वह राणा कीका के रूप में भी पूजनीय हैं।
  • यह सर्वविदित तथ्य है कि प्रताप अपने घोड़े चेतक से बहुत प्यार करते थे, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि चेतक की नीली आंखें थीं।
  • राणा प्रताप ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा, विशेषकर अपने बचपन का एक बड़ा हिस्सा अरावली के जंगल में बिताया था ।

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By Nihal chauhan

मैं Nihal Chauhan एक ऐसी सोच का संरक्षण कर रहा हू, जिसमें मेरे देश का विकास है। में इस हिंदुस्तान की संतान हू और मेरा कर्तव्य है कि में मेरे देश में रहने वाले सभी हिंदुस्तानियों को जागरूक करू और हिंदी भाषा को मजबूत करू। आपके सहयोग की मुझे और हिंदुस्तान को जरुरत है कृपया हमसे जुड़ कर हमे शेयर करके और प्रचार करके देश का और हिंदी भाषा का सहयोग करे।

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